NAI NAZAR INDORE: हम तो डूबेंगे सनम और तुम्हें भी ले डूबेंगे

Nai Nazar Indore: नई नजर, अश्वनी शुक्ला

गंभीर गलती होने पर उसे स्वीकार करने के बजाय ठीकरा दूसरों पर फोड़ना आम बात है। सरकारी विभागों में तो यह तरकीब इतनी प्रभावी है कि दोषियों तक पहुंचना बहुत ही टेढ़ी खीर होता है। एमजीएम मेडिकल कालेज में एमबीबीएस की फाइनल परीक्षा में 40 से अधिक विद्यार्थियों को सर्जरी के प्रैक्टिकल में कथित रूप से जानबूझकर फेल किए जाने का मामला गरमाया हुआ है। विभागाध्यक्ष डा. मनीष कौशल के बहुप्रसारित आडियो में नंबर देने के तरीके की स्वीकारोक्ति के बाद तो इस थ्योरी को बल मिल गया था। अब सफाई देने का दौर शुरू हुआ। इसमें विभागाध्यक्ष ने यह भी बता दिया गया है कि मेरा तो प्रक्रिया से लेना देना ही नहीं है। 20 दिन से चल रहे इस घटनाक्रम में पहले अपने ही विभाग के एक साथी का नाम लिया, फिर दूसरे प्रोफेसर को घसीट लिया। तो साबित हुआ कि हम तो डूबेंगे सनम, तुम्हें भी ले डूबेंगे।

यह सिर्फ घटना नहीं बल्कि सवाल है

एमजीएम मेडिकल कालेज के सर्जरी विभाग में प्रैक्टिकल परीक्षा के दौरान विद्यार्थियों के फेल होने का मामला केवल घटना नहीं बल्कि सवालों का सैलाब है। प्रैक्टिकल परीक्षाओं को लेकर अधिकांश विद्यार्थी यही मानते हैं कि इनमें परीक्षण का तत्व बहुत कम होता है। नंबर देने के पैमाने भी लचीले होते हैं और परीक्षक का मूड भी काफी कुछ तय करता है। परीक्षक अपने पेशे के प्रति ईमानदार व सख्त हो, यही उम्मीद की जानी चाहिए, लेकिन यह आवश्यक तो नहीं है। अब यदि सर्जरी के प्रैक्टिकल में कम जानकारी वाला विद्यार्थी डाक्टर बन गया, तो उसके इलाज से नुकसान की कल्पना की जा सकती है। जानबूझकर पास या फेल किए जाने को केवल घटना नहीं बल्कि शिक्षक डाक्टरों के लिए भी सबक मानना चाहिए कि वे किस तरह के नए डाक्टरों को समाज में लोगों की सेवा के लिए भेज रहे हैं। वे खुद ही घृणित राजनीति और दोषारोपण में उलझे हुए हैं। यह समझना मुश्किल कतई नहीं है कि डाक्टरों के हाथ में मनुष्य का कीमती जीवन होता है।

भिया बांटे रेवड़ी, अपने-अपने को दें

नगर निगम से जुड़ी कहानियां रोचक और अक्सर अविश्वसनीय भी होती हैं। इसकी वजह यही है कि नगर निगम के काम से हर व्यक्ति प्रभावित होता है। उसका काम बहुसंख्य लोगों को प्रभावित करता है। इसी नगर निगम के लिए काम करने वाले ठेकेदार ने कुछ महीनों पहले इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि उसका करोड़ों का भुगतान नहीं हो पा रहा था। अब कुछ ऐसे मामले सामने आए हैं, जिनमें काम हुए बिना ही ठेकेदारों को करोड़ों रुपये का भुगतान कर दिया गया। जनता के धन की इस तरह की बंदरबांट पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। इसने यह भी बता दिया कि नगर निगम की व्यवस्थाएं कतई सुचारू नहीं हैं। एक तरफ तो आर्थिक दिक्कतों की बात कही जाती है, दूसरी तरफ बिना काम के ही करोड़ों रुपये का भुगतान हो जाता है। कहीं यह रेवड़ी की कहानी तो नहीं कि अपने-अपने को दी जाती है।

सख्ती जनता को अच्छी लगती है

कई घटनाएं बताती हैं कि नगर निगम पर नकेल आसान काम नहीं है। बेसहारा श्वान के मामलों में एक जनहित याचिका पर हाई कोर्ट को नगर निगम आयुक्त से कहना पड़ा कि कार से उतरिये, काम जमीन पर दिखना चाहिए, कागजों पर नहीं। लगे हाथ इसकी भी चर्चा हो गई कि स्वच्छता के मामले में भले हम आदर्श हैं, लेकिन बेसहारा श्वानों की संख्या को नियंत्रित करने में नवी मुंबई और देहरादून के नगर निगम अव्वल हैं। ऐसे उदाहरणों के साथ सख्ती बेहद अच्छी है। इसे सकारात्मक ढंग से लेना चाहिए। अफसरों को भी यह समझना चाहिए कि जनता को परिणामों से मतलब है। उन उपायों से मतलब है, जिनसे उनका जीवन सुविधाजनक बने। केवल एक ही उपलब्धि को हमेशा नहीं भुनाया जा सकता, इसलिए सख्ती जरूरी है।

2024-04-25T09:27:13Z dg43tfdfdgfd